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शिक्षा का मुख्य दायित्व

डॉ अमिता शर्मा, असिस्टेंट प्रोफेसर, समाजशास्त्र




Image Courtesy: Google


शिक्षा आज के युग का सब से महत्त्व पूर्ण लक्ष्य है, और देश की उन्नति का भी मापदंड है। शिक्षा का अभिप्राय हमेशा से जीविका का साधन, ज्ञान और व्यक्तित्व का विकास ही रहा है। परंतु क्या शिक्षा का महत्त्व केवल जीविका अर्जित करना और व्यक्तित्व का विकास ही है ?

मन प्रतिदिन विद्यार्थियों की मन: स्थिति को जानने के लिए जिज्ञासु हो उठता है। विद्यार्थियों में बढ़ता मानसिक अवसाद, तनाव एवम् आत्महत्या आज के युग की एक गंभीर समस्या है।दूसरी ओर ऐसे भी बहुत से मामले सामने आए हैं जहॉं शिक्षा अर्जित कर अनेक युवा अपना लक्ष्य प्राप्त करते है , परंतु बाद में भी मानसिक अवसाद से घिरे रहते है और अपने काम को पूरी लग्न ओर तन्मयता से नहीं कर पाते॥ तो कही, कोई चूक तो हम से नहीं हो रही ?

जीवन का मूल मंतव्य ख़ुशी है, परंतु शिक्षा एवम् शैक्षणिक संस्थाऍं इस जीवन मूल्य के प्रति उदासीन है॥ आज तक “प्रसन्नता” को शिक्षा का मुख्य मन्तव्य क्यों नहीं समझा गया ?क्या शिक्षाप्रणाली, समाज एवं ्परिवार का दायित्व्य नहीं एक प्रसन व्यक्ति और समाज का निर्माण करना ?क्या एक बच्चे का समाजीकरण उसकी प्रसन्नता को प्रमुख रख कर नहीं किया जाना चाहिए ?क्यों सभी अभिभावक सिर्फ़ सामाजिक एवम् आर्थिक लक्ष्यों को ही महत्त्व देते है, क्यों नहीं बच्चे की प्रसन्नता को ध्यान में रखते हुए उसको लक्ष्यों की ओर अग्रसर किया जाता ?बहुसंख्यक देश में यह करना थोड़ा कठिन तो है परंतु नामुमकिन नहीं। प्रारंभिक शिक्षा को स्वैच्छिक शिक्षा के साथ जोड़ कर बच्चे को उसकी रुचि के आधार पर मंज़िल चुनने में सहायता की जा सकती है और इस प्रकार अगर किसी भी विद्यार्थी को उसके पसंदीदा व्यवसाय को चुनने दिया जाए तो उसकी प्रतिभा को सरलता से कौशल में परिवर्तित किया जा सकता है। और हम एक समृद्ध समाज के साथ साथ एक प्रसन्न समाज का भी निर्माण कर सकते हैं । शिक्षा का मुख्य लक्ष्य हम आज तक अगर प्रसन्नता को नहीं बना पाए तो उसमें केवल शिक्षा प्रणाली ही ज़िम्मेदार नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज और अभिभावक भी उस के लिए ज़िम्मेदार है क्योंकि सभी अंकों की दौड़ में उलझे हुए हैं आज के समय में सभी बच्चों का भविष्य एवम् योग्यता उसके द्वारा अर्जित किए गए नंबरों के आधार पर ही निर्भर है । ये सब चीज़ें न सिर्फ़ बच्चे को उलझन देती है अपितु अप्रसन्नता भी उसके चरित्र का एक अभिन्न अंग बन जाती है कई बार अच्छे अंक प्राप्त करने पर भी विद्यार्थी नाख़ुश ही नज़र आते हैं और कई बार कम अंक आने पर वे बहुत अधिक अवसाद से भर जाते हैं। क्योंकि कहीं न कहीं उनका मन अप्रसन्न होता है। क्या हम ऐसे बच्चों को भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं जो केवल अंकों को अपने बुद्धि के साथ जोड़ते हैं और अप्रसन्नता या प्रसन्नता का अंतर नहीं समझ पाते। आज के युग में प्रसन्नता को जीवन मूल्य मानते हुए शिक्षा प्रणाली का एक अभिन्न अंग बना देना चाहिए।

प्रसन्नमन, प्रसन्न तन। स्मृद्ध समाज,स्मृद्ध वसुधा।



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